कविता : तुम्हें समझना
कविता तुम्हें समझना तुम्हें समझना जैसे बादलों को समझना है तुम्हें समझना जैसे धरती को समझना है तुम्हें समझना केसर और धान को समझना है तुम्हें समझना प्रकृति की लय को समझना है तुम्हें समझना जागरे की भट्टी को समझना है तुम्हें समझना धरती की प्यास को समझना है तुम्हें समझना गैर के संताप को समझना है तुम्हें समझना खेत की मेड को समझना है तुम्हें पढ़ लेना कविता को समझना है तुम्हें मानना एक सत्य को समझना है सच तो यह है हम बादल ,धरती ,प्रकृति,मेड और जगरे की भट्टी किसी को नहीं समझते क्योंकि हम ठीक से तुम्हें नहीं समझते !!